गुरुकुल में अमीर घरों से आये हुए कुछ विद्यार्थियों ने गुरुकुल के संचालक मुनि आत्रेय से पूछा : ‘‘भगवन् ! जो अपने घरों से मनपसंद भोजन और वस्त्र मँगा सकते हैं वे उनका उपयोग क्यों न करें ? वे दूसरे निर्धन विद्यार्थियों की तरह सामान्य चीजों से क्यों गुजारा करें ?’’
मुनि : ‘‘विद्यार्थियो ! हम जिस वातावरण में रह रहे हैं, उसीके अनुरूप हमारा रहन-सहन होना चाहिए । सभीके भोजन और वस्त्रों में एकरूपता होनी चाहिए, जिससे किसीके मन में आत्महीनता के भाव न उत्पन्न हो सकें । समानता के उद्देश्य से ही यह व्यवस्था रखी गयी है । यहाँ गरीब-अमीर कोई नहीं हैं, सब एक समान हैं । धनी अपना धन गरीबों की सहायता में लगाये, न कि निजी सुख-सुविधाओं एवं विलासितापूर्ण जीवन में । यही आदर्श जीवन का सिद्धांत है ।’’
(सबसे ऊँचे योग ‘समत्व योग’ एवं सुखकारी सिद्धांत ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की सुंदर शिक्षा देनेवाली पत्रिका ‘ऋषि प्रसाद’ से साभार)
मेरे दोनों बच्चे गुरुकुल में अध्ययन करते है । मेरे घर से गुरुकुल 800 किलोमीटर है फिर भी मेरे बच्चे गुरुकुल में प्रसन्नतपूर्वक पड़ते है। जो साधारण स्कूल में न संस्कार दिला सके वह गुरुकुल से मिला।
मेरे गुरुदेव संत श्री आशारामजी बापू कहते है। बच्चे कच्चे घड़े के समान है बचपन से जो आकर दो गे उसी में ढल जायेगे।